आदेश:
यह संस्थान जनसाधारण, वन एवं पर्यावरण में उत्पन्न पारस्परिक समस्याओं को निरंतर सुलझाने हेतु अनुसंधान, शिक्षा एवं विस्तार के माध्यम से ज्ञान तकनिकी एवं समाधान को उत्पन्न करने, सुरक्षित रखने तथा प्रसार करने की दृष्टि को जीवंत रखता है । संस्थान का अधिदेश काष्ठ विज्ञान एवं तकनिकी पर राष्ट्रीय उद्देश्य से अनुसंधान करना तथा कर्नाटक एवं गोवा राज्यों के प्रमुख वानिकी अनुसंधान की आवश्यकताओं एवं गतिविधियों पर बल देता है ।
सार अनुसंधान क्षेत्र:
1- काष्ठ रचना एवं गुणधर्म
2- काष्ठ प्रसंस्करण एवं काष्ठ मिश्रित साग्री हेतु तकनिकी का विकास
3- वृक्ष उन्नति एवं प्रचार – कृषि वानिकी एवं वनवृक्ष विज्ञान
4- वन एवं काष्ठ प्रचार
5- काष्ठ रसायन एवं जैव उर्जा
भौगोलिक क्षेत्राधिकार:
कर्नाटक एवं गोवा
प्रधान अनुसंधान उपलब्धियाँ : (विस्तार से देखने के लिए लिंक पर क्लिक करें)
1: जीविका आलंबन एवं आर्थिक विकास हेतु वन एवं वन उत्पादों का प्रबंधन:
दक्षिण भारत में कम ज्ञात एवं वृक्षारोपण विधि से उगाई गई इमारती लकड़ियों का उन्नत उपयोग
उगाई गई इमारती लकड़ियों की रचना संबंधित, भौतिक तथा यांत्रिक गुणों की समझ इन प्रजातियों के विभिन्न उपयोग हेतु वर्गीकरण में मदद करती है । इमारती लकड़ियों के विकल्प के रूप में इनके प्रचार प्रसार में वैज्ञानिक आँकड़े महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । आईडबल्यूएसटी इन लकड़ियों के गुणों के मूल्यांकन हेतु प्रयासरत है । इस प्रयास से उगाई गई इमारती लकड़ी की प्रजातियों के लिए वैज्ञानिक आँकड़ों का सृजन हुआ । वैज्ञानिक आँकड़ों के सृजन से भौतिक एवं यांत्रिक गुणों के आधार पर इमारती लकड़ियों के विभिन्न उपयोग में मदद मिलती है । प्राकृतिक वनों से प्राप्य प्राथमिक काष्ठ के उपयोग को कम करने के क्रम में विभिन्न अप्रचलित काष्ठ तथा वृक्षारोपण आधारित काष्ठ प्रजातियों का भौतिक तथा यांत्रिक गुणों के आधार पर अध्ययन किया गया जिससे कि उनकी विभिन्न क्षेत्रों में उपयोगिता ज्ञात की जा सके । इन प्रजातियों की अनुकूलता निर्माण, दरवाजा तथा खिड़कियाँ, फर्नीचर, हस्तशिल्प, कृषि उपकरण, खेलकूद के सामान, उपकरण का हस्तक आदि के निर्धारण के पश्चात् विभिन्न उपयोगकर्ताओं हेतु अनुशंसित किया गया ।
काष्ठ बहुलक यौगिक
आईडबल्यूएसटी, काष्ठ बहुलक यौगिक (डबल्यूटीसी) तकनिकी के विकास हेतु अत्यंत प्रयत्नशील रहा है जिसमें पॉलिप्रॉपिलीन जैसे थर्मोपलास्टिक, हाई डेन्सिटी पॉलिथिलीन (एचडीपीई), आदि को प्राकृतिक रेशों के साथ मिलाया जाता है । यह तकनिकी प्लास्टिक उत्पादों को हरित, पर्यावरण मित्रवत तथा काष्ठ के अनुपयोगी भाग को उपयोग में लाने, वन के खरपतवार, कृषि अवशेष एवं अन्य प्राकृतिक रेशों के मूल्य संवर्धन हेतु अपूर्व अवसर प्रदान करता है ।
इस प्रकार के यौगिक सामग्री को विकसित करने में थर्मोप्लास्टिक के साथ प्राकृतिक रेशों की असंगतता एक बड़ी चुनौति है । आईडबल्यूएसटी ने कृत्रिम योजक अभिकरण विकसित किया है जो प्राकृतिक रेशों के साथ प्लास्टिक की संगतता को बल प्रदान करता है । कृत्रिम योजक अभिकर्ता की सहायता से पारंपरिक योजक अभिकर्ता के मुकाबले श्रेष्ठ यांत्रिक गुणों को विकसित करता है । नव विकसित यौगिक मूल पॉलिमर यौगिक अथवा पारंपरिक अकार्वनिक थर्मोप्लास्टिक यौगिक की अपेक्षा अधिक कठोर एवं मजबूत, आर्द्रता प्रतिरोधी एवं आयामी रूप से स्थिर होता है । यह यौगिक सामग्री निष्कासित उत्पाद एवं इंजेक्शन मोल्डिंग उत्पाद हेतु बड़े स्तर पर उपयोग में लाई जा सकती है । डेकिंग, कलम, हैंगर, गमला आदि उत्पादों में आईडबल्यूएसटी द्वारा विकसित डबल्यूपीसी कण के उपयोग के अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं । संस्थान ने भारतीय सर्वाधिकार तथा व्यापारिक आधार पर तकनिकी हस्तांतरण हेतु आवेदन किया है ।
बाँस से नैनोसेलुलोसिक व्हिस्कर
बाँस के गूदे से नैनोसेल्युलोज व्हिस्कर बनाने की एक विधि विकसित हुई है । नैनो व्हिस्कर को पृथक करने की मुख्य तीन विधियाँ, (क) अम्ल जल अपघटन, (ख) किण्वक जल अपघटन, (ग) नेटिव बम्बू फाइबर के टेम्पो मेडिएटेड ऑक्सीटेशन का मूल्यांकन किया गया । इस मानकीकृत प्रक्रिया में न्यूनतम ऊर्जा की आवश्यकता होती है तथा रशों को नुकसान भी न्यूनतम होता है । बाँस के सूक्ष्म रेशों का व्यास कुछ नैनोमीटर तथा अति उत्तम अनुपात (चौड़ाई 5-15 नैनोमीट तथा लंबाई कुछ नैनोमीटर) होता है । बाँस से पारदर्शी तथा लचीला फिल्म सूक्ष्म रेशे बनाए गए । फिल्म द्वारा अति उच्च भंडारण का प्रदर्शन किया गया (-100 जीपीए). विकसित नैनोमोडुलोज में बायोटक्ननोलॉजी, कृषि आधारित आदि वर्गीकृत मिश्रण सामग्री में उपयोग की भारी क्षमता है ।
काष्ठ का उष्मीय रूपांतरण
उष्मीय रूपांतरण के द्वारा परंपरागत रूप से निम्नस्तरीय काष्ठ के कुछ गुणों का संवर्धन कर उच्चस्तरीय काष्ट के विकल्प के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है । निष्क्रिय परिवेश में उच्च तापमान पर (150-250 डिग्री सी) तापोचार सबसे प्रभावी काष्ठ रूपांतरण तकनिकी है जिसके द्वारा जिवाणुओं द्वारा क्षय के विरुद्ध आयामी स्थिरता, रंग-रूप एवं क्षय प्रतिरोध को विकसित किया जा सकता है । प्रक्रिया के मापदण्डों में परिवर्तन कर गाढ़े भूरे रंग सहित विभिन्न गुणों को नियंत्रित किया जा सकता है । तापोचारित काष्ठ को अपने जीवन वृद्धि हेतु किसी अन्य परिरक्षक रसायनोपचार की आवश्यकता नहीं होती है । अपने उत्तम मौसम प्रतिरोध क्षमता के कारण तापोचारित काष्ठ खिड़कियों तथा बाग फर्नीचर आदि बाह्य सज्जा में उपयोग हेतु भी उपयुक्त माना जाता है । तापोचार प्रक्रिया रबरवुड, अकेशिया,यूकैलिप्टस, मेलिया डुबिया पोप्लर आदि स्थानीय लकड़ियों में मूल्य संवर्धन हेतु विकसित किया गया है । तापोचारित काष्ठ के उन्नत गुण काष्ठ उद्योग में गैर टिकाऊ काष्ठ के उपयोग हेतु एक सुनहरा अवसर प्रदान करता है । आद्योगिक क्षेत्र में हस्तांतरण इस प्रक्रिया में शामिल है ।
काष्ठ का अपक्षय एवं सतह रक्षण
आईडबल्यूएसटी रासायनिक रूपांतरण, तापोचार तथा सतह विलेपन के परिपेक्ष्य में काष्ठ के अपक्षय रक्षण हेतु गहन अनुसंधान में कार्यरत है । विभिन्न रसायनों (एनहाइड्राइड्स अम्ल, क्लोराइड अम्ल, अल्किलीन ऑक्साइड) द्वारा रूपांतरित काष्ठ के प्रदर्शन का अध्ययन काष्ठ की आयामी स्थिरता, फोटो स्थिरता एवं जैविक प्रतिरोध को विकसित करने के उद्देश्य से किया गया । इनमें से कुछ पद्धतियाँ काफी प्रभावी सिद्ध हुई हैं । विलेपन के पूर्व काष्ठ का रासायनिक रूपांतरण कर विलेपन के प्रदर्शन को बेहतर किया जा सकता है । बिना घोलक के काष्ठ को एनबीएस एवं आयोडीन की उपस्थिति में अम्लीय एनहाइड्राइड के साथ माइक्रोवेव में तापोचारित किया गया । एनबीएस एवं आई 2 को काष्ठ का संवर्धक पाया गया । इस प्रक्रिया के द्वारा अल्प समय में सकारात्मक परिणाम देखने को मिले । रूपांतरित काष्ठ में जल प्रतिरोध एवं आयामी स्थिरता पाई गई । रूपांतरित काष्ठ में उन्नत आयामी स्थिरता एवं क्षय प्रतिरोध के कारण यह अत्यधिक उपयुक्त होता है ।
सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से काष्ठ का शुष्कीकरण
रेशा संतृप्तिकरण तक काष्ठ शुष्किकरण में अधिक ऊर्जा तथा समय की आवश्यकता होती है तथा शुष्किकरण क्षय भी अधिकतम होता है । संस्थान में सूक्ष्म तरंग काष्ठ शुष्किकरण पद्धति विकसित किया गया है । यह पद्धति काष्ठ को रेशा संतृप्तिकरण बिन्दु तक सुखाने में अत्यंत प्रभावी है । संस्थान द्वारा विकसित शुष्क तरंग पद्धति सुखाने की अवधि को काफी कम कर देता है तथा लकड़ी की गुणवत्ता भी पारंपरिक विधि की अपेक्षा अधिक होती है ।
काष्ठ परिरक्षण
जैव अपघटनीय सामग्री होने के कारण, काष्ठ के सेवा काल में वृद्धि हेतु संरक्षण की आवश्यकता होती है । वर्तमान में वृक्षों तथा बीज के तेल द्वारा निर्मित पारिस्थितिक अनुकूल काष्ठ परिरक्षी पर विशेष बल दिया जा रहा है । पोंगामियां पिनाटा के बीज का तेल (तांबा सहित या रहित) काष्ठ परिरक्षी के रूप में उत्तम माना जाता है । हरे बाँस/खम्भा को सुखाने के लिए सामान्य सैप डिस्प्लेस्मेंट तकनीक का उपयोग किया जाता है । संस्थान द्वारा विकसित परिशोधित बाउचेरी प्रक्रिया हरे बाँस/खम्भे को सुखाने हेतु अत्यंत लोकप्रिय है ।
नैनो आधारित तांबा काष्ठ परिरक्षी:
रबर काष्ठ, अकाइऑरिकुलफॉर्मिक्स एवं मेलिया ड्यूबिया आदि विभिन्न अल्पायु काष्ठ प्रजातियों के उपचार लिए पारंपरिक सीसीए परिरक्षी के बदले नैनो आधारित जल जनित माइक्रोनाइज्ड कॉपर फॉर्मुलेशन का उपयोग किया गया है । उपचारित काष्ठ पर अल्प कॉपर लिचिंग पाया गया तथा उसके यांत्रिक गुणों पर कोई प्रभाव देखने को नहीं मिला । उपचारित काष्ठ में खुले में उपयोग के बावजूद दीमक के विरुद्ध उत्कृष्ट स्थायित्त्व देखने को मिला । अनुसंधान का परिणाम यह प्रदर्शित करता है कि पारंपरिक परिरक्षी की अपेक्षा माइक्रोनाइज्ड कॉपर एक उत्तम विकल्प है ।
सूक्ष्म वस्तु अंतःस्थापित विलेपन
खुले में काष्ठ से बने सामान की लंबी उम्र के लिए यूवी विकिरण से विलेपन सामग्री एवं काष्ठ अवयव का रकण महत्त्वपूर्ण है । नैनो मेटल ऑक्साइड युक्त विलेपन सामग्री में खुले वातावरण में हानिकारक यूवी विकिरण से काष्ठ की सुरक्षा करने की क्षमता है । सूक्ष्म कण मिश्रित अत्यंत ही प्रभावी विलेपन सामग्री को विकसित किया गया । रबड़ काष्ठ पर यूवी प्रतिरोध हेतु तीन नैनो मेटल ऑक्साइड जिंक ऑक्साइड, सेरियम ऑक्साइड एवं टिटेनियम के मिश्रण से तैयार लेपन सामग्री का मूल्यांकन किया गया । इस प्रक्रिया में लकड़ी के रंग एवं काष्ठ बहुलक को बरकरार रखने की क्षमता पाई गई ।
जैव आधारित बहुलक संसेचन द्वारा उन्नत काष्ठ
फरप्यूरिलेशन काष्ठ रूपांतरण का सबसे प्रायोगिक विधि है । फरफ्यूरि एक ऐसा रसायन है जिसके उपयोग से साष्ठ का आयतन बढ़ जाता है तथा बढ़ा हुआ आयतन काष्ठ का स्थायी भाग बन जाता है । इसके उपयोग से काष्ठ के आयतन के विकास के साथ गुणवत्ता में कोई कमी नहीं आती है । द्वितीयक काष्ठों में इसके उपयोग से उनकी आयु में वृद्धि भी देखने को मिलती है ।
काष्ठ का गैर विनाशक परीक्षण
लकड़ी के लट्ठे में छुपे दोषों, विशेष कर खोखलेपन की जाँच करने के लिए पराश्रव्य विधि नामक गैर विनाशक तकनीक की खोज की गई । समय के साथ काष्ठ क्षय के मूल्यांकन के उद्देश्य से पारंपरिक एवं एनडीटी पराश्रव्य विधि के तुलनात्मक अध्ययन हेतु पुराने दरवाजे, खिड़कियों, अन्य रचनाएँ तथा किवाड़ों के आँकड़ों का मूल्यांकन किया गया ।
दोनों विधियों के द्वारा यह पाया गया कि पराश्रव्य विधि पुनःउपयोग हेतु प्रभावी है तथा दिशानर्देश प्रदान करती है । काष्ठ के ध्वनिक गुणों के निर्धारण हेतु एएसटीएम ई 1059-98 मानक आधारित अवरोध नलिका के उपयोग से कंप्यूटर आधारित परीक्षण पद्धति विकसित की गई । इस पद्धति द्वारा वर्तमान में पट्टी लगाने हेतु ध्वनि पार्थक्य सामग्री के रूप में प्रकाष्ठों की रोपाई हेतु वर्गीकरण में भी सहायता मिलती है । विकसित पद्धति के उपयोग का अनुप्रयोग वाद्य यंत्रों के प्रदर्शन के मूल्यांकन हेतु किया गया जिससे गैर-पारंपरिक प्रकाष्ठ प्रजातियों का वाद्य यंत्र निर्माण हेतु चयन में सहायक था ।
सूक्ष्म तरंग समर्थित तेल निष्कर्षण एवं बायो डीजल उत्पादन
सूक्ष्म तरंग द्वारा किरणित बीज का हेक्सेन घोलक द्वारा तेल निकालने की विधि अल्प समय में कुल वसा प्राप्त करने की अत्यंत ही प्रभावी है । कोशिका झिल्ली के टूटने तथा बीज की सतह पर तेल आ जाने के कारण अधिकत्म तेल प्राप्त किया जाता है । इसके अतिरिक्त बीज में छिद्र विकसित होने से कम समय में तेल आसानी से निकल जाता है । तेल की गुणवत्ता में भी किसी प्रकार की गिरावट नहीं पाई गई । यह प्रक्रिया सभी प्रकार के बीजों से तेल निकालने हेतु उपयोगी सिद्ध होगी । ताप एवं ऊर्जा की बढ़ती माँग को नवीकरणीय संसाधनों से पूरा करने के लिए पोंगामियाँपिनाटा के बीज से बायोडीजल के उत्पादन हेतु सूक्ष्म तरंग किरणन का उपयोग किया गया है । अध्ययन के परिणाम से यह ज्ञात हुआ कि .5% सोडियम हाइड्रॉक्साइड एवं 1 % पोटासियम हाइड्रॉक्साइड का मिश्रण सूक्ष्म तरंग ताप द्वारा पी. पिनाटा तेल से बायोडीजल प्राप्त करने के लिए सर्वोत्त्म है । सूक्ष्म तरंग विधि के द्वारा पारंपरिक ताप विधि (2 से 3 घंटे) के अपेक्षा प्रतिक्रिया अवधि में भारी गिरावट (5 मिनट) देखने को मिली ।
चंदन काष्ठ चूर्ण से नया सुगंधित तेल
चंदन काष्ठ चूर्ण तथा चंदन सैपवुड चूर्ण के रासायनिक परिवर्तन से नया सुगंधित तेल (एईएसपी, .6% तथा एडबल्यूए .9% ) प्राप्त किया गया । दोनों प्रकार के तेल मे प्राकृतिक चंदन के तेल जैसे गुण पाए गए । इनमें खुशबु एवं संबद्ध उद्योग में अपनी पहचान बनाने की क्षमता है ।
पृथकलिंगी वानिकी प्रजाति का लिंग निर्धारण
वानिकी प्रजातियाँ अपने फूलों के आधार पर या तो उभयलिंगाश्रयी या एकलिंगाश्रयी प्रकृति की होती हैं । उभयलिंगाश्रयी प्रजाति में नर एवं मादा दोनों प्रकार के पुष्प विद्यमान होते हैं । एकलिंगाश्रयी प्रजाति में केवल एक अर्थात नर अथवा मादा पुष्ष विद्यमान होता है । अतः नर एवं मादा पादप पूर्णतः पृथक होते हैं तथा उन्हें एकलिंगाश्रयी प्रजाति के रूप में जाना जाता है । एकलिंगाश्रयी वानिकी प्रजाति के कुछ उदाहरण हैं (गार्सिनिया कैंबोगिया, गार्सिनिया इंडिका, मरिस्टिकाफ्रेगरेंस एवं सिमोरुबागलुका आदि) । विभिन्न एकलिंगाश्रयी वानिकी प्रजाति के खेती भिन्न-भिन्न तरीकों से की जाती है । खेती करने अथवा प्राकृतिक स्थिति में प्रति सात से आठ मादा पादप पर एक नर पादप होना अनिवार्य होता है । वनरोपण कार्यक्रम में बालवृक्षों के लिंग की पहचान महत्त्वपूर्ण है । लिंग पहचान हेतु संस्थान ने एक सुगम एवं सुलभ विधि की खोज की है । इसके अतिरिक्त उच्च उत्पादन क्षमता वाले चंदन वृक्षों की पहचान हेतु भी एक विधि विकसित की जा रही है । तथापि तकनीक के मानकीकरण हेतु विभिन्न परिक्षणों की आवशयकता है ।
भारतीय वातावरण में आयातित प्रकाष्ठों का प्राकृतिक प्रतिरोध
क्षेत्रीय वातावरण में कवक एवं दीमक के विरुद्ध भारतीय प्रकाष्ठों के स्थायित्व का वर्गीकरण प्रलेखित किया गया है । अपने देश में आयातित काष्ठों के प्राकृतिक प्रतिरोध का मूल्यांकन भी किया गया । इसके आधार पर सर्वाधिक प्रतिरोधी प्रजातियाँ हैं – ड्रायोबालानोप्सारोमोटिका, टेक्टोनैगरेंटिस (पाँच देशों से), सोरियलेविस, एस. मार्कोपेट्रा, एस. रोबोस्टा, पेटेरोकारोपुसोयाउसी (तीन देशों से) एवं जाइलियाडोलाब्रिफॉर्मिस. क्यूरक्यूरोबर दीमक प्रहार के विरुद्ध सामान्य प्रतिरोधी था । फेगस सिल्वाटिका (दो देशों से), फेगस ग्रैडिफोलिया, फ्रेक्सीनसंगुस्टिफोलिया, एफ. एक्सिल्सर, एसर स्यूडोपलांटंस दीमक प्रहार के विरुद्ध ग्रहणशील थे । संस्थान द्वारा आयातित प्रकाष्ठ पर तैयार की गई उपयोगकर्ता नियमावली में इस सूचना का उल्लेख किया गया । भारतीय मानक ब्यूरो पर आधारित आयातित प्रकाष्ठों के स्थायित्त्व निर्धारण हेतु दीर्घकालिक अध्ययन जारी है ।
अनुपयोगी लकड़ियों से पॉलिपाइड्रोक्सिअल्कोनेट का सूक्ष्मजैविक जीव संश्लेषण
अनुपयोगी लकड़ियों से बायोप्लास्टिक बनाने के लिए एक अवयव तैयार किया गया है । कवक के विभिन्न प्रजातियों में से सात प्रजातियों को काष्ठ विनाशक के रूप में चिह्नित किया गया है । काष्ठ अवयव पर इनकी बृद्धि का अध्ययन किया गया, जिसमें टर्मेट वर्सिकलर एवं टर्मेटस्पिनी का विकास पर्याप्त पाया गया । विभिन्न वातावरण से भिन्न-भिन्न बैक्टेरिया के एक विशेष प्रकार के घोल के साथ सकारात्मक प्रभाव देखने को मिले । उपचारित लकड़ियों पर इनके प्रभाव बहुत कम हो जाते हैं ।
वन नाशक जोवों के प्रबंधन हेतु मेटारिजियम आधारित एक माइकॉन्सेक्टिसाइड
कुछ चयनित वानिकी प्रजातियों के लिए कीट प्रबंधन हेतु द्रव एवं चूर्ण रूप में मेटारिजियम आधारित एक कवक जैव कीटनाशक मिश्रण का विकास किया गया है । ये मिश्रण अनुपम हैं तथा इनमें दो रोगजनक अभिरंजक को शामिल किया गया है । इस उत्पाद में दो पृथक घटकों को एक साथ मिलाया गया है जिससे कि एक अति सशक्त एवं सहक्रियाशील हो तथा विभिन्न प्रकार के कीट प्रबंधन में प्रभावी हो । उत्पादन बढ़ाने के लिए सस्ते प्रोटीनयुक्त को भी मिलाया जाता है । निरुपण स्तर पर भी तीव्र वृद्धि के लिए नवोन्वेषी तकनीक का विकास किया गया है । पीड़क के आधार पर छिड़काव के लिए तेल आधारित मिश्रण के उपयोग का सुझाव दिया जाता है, एफवाईएम, लकड़ी का बुरादा, कोको-पिट अथवा प्रेस मड के साथ मिलाकर एक चूर्ण मिश्रण को अनुशंसित किया जाता है । आक्रमण की प्रकृति एवं गंभीरता को ध्यान में रखते हुए विभिन्न अनुप्रयोग अनुशंसित किए जाते हैं । चूकि उपयोग में आने वाले कच्चा माल सस्ते हैं तथा उत्पादन तकनीक में अधिक उपकरणों का आवश्यकता नहीं है, अतः उत्पादन मूल्य बाजार में उपलब्ध अन्य कीटनाशकों की तुलना में काफी कम है ।
कीट पीड़क की जैव पारिस्थितिकी एवं प्रबंधन
सागवान में अंतः काष्ठ छेदक पर अध्ययन किया गया एवं एकीकृत पीड़क प्रबंधन अभ्यास का विकास किया गया । सूचना को तकनीकी बुलेटिन के रूप में प्रकाशित किया गया । पाँगेमियापिनाटा के फूल सहित गैल मिज के विभिन्न पहलुओं पर खोज की गई । सूचना के आधार पर रासायनिक एवं संवर्धन अभ्यास सहित विभिन्न प्रबंधन अभ्यास विकसित किए गए हैं । निष्कर्ष को किसानों के दिशानिर्देशन हेतु तकनीक बुलिटिन के रूप में प्रकाशित किया गया । कर्नाटक में पौधशाला में पाए जाने वाले प्रमुख कीट एवं पीड़क की पहचान कर उनके निवारण के उपायों का प्रलेखीकरण किया गया है । प्रमुख कीट पीड़क पर पीड़क प्रबंधन अभ्यास विकसित किया जा रहा है ।
वानिकी में अधिक पौधों के भंडारण तथा उत्तम उत्पादकता के साथ उत्तरजीविता प्रतिशत के लिए पर्यावरण हितैषी एएम फंजाई
अर्बस्कुलर माइक्रोहिजल (एएम) फंजाई पारिस्थितिक तथा आर्थिक रूप से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण फंजाई समूह है । ये फसलों की पैदावार, पोषक तत्व, प्रतिरोधक क्षमता, बाढ़ सहन की क्षमता बढ़ाने तथा मृदा संरक्षण में सहायक हैं । वन रोपण कार्यक्रम हेतु पौधशाला तैयार करने के लिए यह तकनीक अत्यंत सहायक है । पौधशाला में विभिन्न प्रजाति के पौधों पर एएम तकनीक के प्रयोग किए गए । वन रोपण हेतु तैयार की जाने वाली पौधशाला में विभिन्न प्रजातियों के पौधों पर अत्यंत ही सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलते हैं ।
2: जैव विविधता संरक्षण एवं पारिस्थितिक सुरक्षा :
जैव विविधता संरक्षण
दापोली स्थित बालासाहेब सावंत कोंकण कृषि विद्यापीठ (कृषि विश्वविद्यालय) में पश्चिमी घाट से एकत्रित डेंड्रोकालामुस्टॉक्सी की 102 जीनप्ररूप से एक जननद्रव्य बैंक स्थापित किया गया है । कर्नाटक वन विभाग होन्नावर एवं आईडबल्यूएसटी के क्षेत्राधीन केन्द्रीय पौधशाला में डी स्टॉक्सी के बहुअवस्थित एकपूर्वजक विशेषक की स्थापना भी की गई ।
पश्चिमी घाट के महत्त्वपूर्ण लुप्तप्राय औषधीय पौधों का उत्तक संवर्धन विधि से 1500 सूक्ष्म प्रचारित तैयार कर काटगल एवं अगुंबे में वृक्षारोपण हेतु रखा गया ।
पश्चिमी घाट के अतिमहत्त्वपूर्ण, सदाबहार लुप्तप्राय वृक्ष प्रजातियों जैसे – गार्सिनियागुमिगुट्टा, डाइसोक्सिलमलाबारिकम, कनैरियमस्ट्रिक्टम, हाइड्रनोकार्पसपेन्टन्ड्रा, मधुका, इंसिग्निस एवं म्यूसाफेरा आदि के मानकीकृत बीज अंकुरण, अनुरक्षण एवं भंडारण की व्यवस्था की गई है । यह सागवान की संवर्धित खेती के लिए अत्यंत उपयोगी है ।
कर्नाटक के चार स्थाई क्षेत्रों में संरचना, विविधता एवं पुनर्अंकुरण परिस्थिति पर अध्ययन से यह पता चला है कि इस प्रयोग से पेड़ों के धनत्त्व, आधार क्षेत्र, परिधि में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले हैं ।
पश्चिमी घाट में श्वेत मक्खी की पहचान
भारतीय श्वेत मक्खी (एलिरोडेः हेमिप्टेरा) के वर्गीकरण पर महत्त्वपूर्ण योगदान दिया गया है । कोकेरेलिला सुन्दरराज एवं डेविड, डेवेडेला दूबे एवं सुन्दरराज, डिस्टिंक्टालिरोड्स दूबे एवं सुन्दरराज, फिपाटालिरोड्स सुन्दरराज एवं डेविड इक्फ्रेलिरोड्स दूबे एवं सुन्दरराज कनकरजिएला डेविड एवं सुन्दरराज, स्यूडकोकेरेलिएला सुन्दरराज एवं वेनालिरोड्स पुष्पा एवं सुन्दरराज आदि श्वेत मक्खी की आठ नई प्रजातियों का पता लगाया गया है । विज्ञान जगत में अब तक भारत की ओर से कुल 131 प्रजातियों की खोज की गई है । इसके अतिरिक्त श्वेत मक्खियों की 12 प्रजातियों की खोज पहली बार की गई । पौधशालाओं में श्वेत मक्खी पीड़क एवं उनका प्रबंधन विषय पर एक तकनीक बुलेटिन भी प्रकाशित की गई ।
काष्ठ आयात के माध्यम से जैव-आक्रमण
भारत में काष्ठ तथा काष्ठ से निर्मित वस्तुओं के आयात से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का अध्ययन किया गया कि इससे भी जैव-आक्रमण की पूरी संभावनाएँ हैं । भारत में आयात होने वाले काष्ठ एवं काष्ठ से निर्मित वस्तुओं की वर्तमान की बैधता की गणना, निर्यात करने वाले देशों द्वारा संगरोग उपायों पर कार्रवाई, काष्ठ एवं अन्य वस्तुओं में पीड़क की उपस्थिति का विशदीकरण, भारत में निर्यात के बाद संगरोग के उपाय की संभावना आदि विषयों पर सूचनाएँ एकत्रित की गईं ।
पश्चिमी घाट के माकुटा के सघन वनों में काष्ठ आधारित फंजाई की विविधता
सूक्ष्म फंजाई के 38 जेनरा, 29 परिवार के कुल 50 प्रजातियों को चिह्नित किया गया । वर्तमान में चिह्नित कुछ प्रजातियाँ हैं – आर्टोमाइसेस्पिक्सिडाट्स, बॉन्डराजवेबरकेलेई, क्रूसिबुलियम लीव, क्लाउलिनेक्रिस्टाटा आदि । सूक्ष्म फंजाई की पहचान हेतु क्षेत्र निर्देशिका के रूप में इस परियोजना के परिणामस्वरूप एक नियमावली का प्रकाशन भी किया गया ।
भारतीय चंदन (संटालम एल्बम लिन.) पर एंटोमोफॉनल की विविधता एवं उनके परस्पर संबंध
इस संस्थान में दक्षिण भारत में चंदन के परिपेक्ष्य में तथा वनों से परे चंदन की खेती पर एंटोमोफॉनल की विविधता को प्रलेखित किया गया है । चंदन पर कीटों के प्रजनन को चिह्नित कर उसके प्रबंधन की संभावनाओं को अभ्यास के माध्यम से विकसित किया गया है । चंदन के वृक्षों पर कीट, पीड़क एवं अन्य व्याधियों एवं उनके प्रबंधन विषय पर संक्षिप्त नियमावली प्रकाशित की गई है । सघन सर्वेक्षण से यह पता चला है कि कर्नाटक के प्राकृतिक वन क्षेत्रों में चंदन के छेदक कीटों में अंतःकाष्ठ छेदक एरिस्टोबिऑक्टोफासिकुलाटा एवं लाल तना छेदक ज्यूरेराकोफे अत्यधिक प्रचलित हैं । सूक्ष्म फंगाई की पहचान हेतु इस परियोजा के परिणामस्वरूप क्षेत्र निर्देशिका के रूप में एक नियमावली भी प्रकाशित की गई ।
भारतीय चंदन काष्ठ (सैंटालम एल्बम लिन्.) पर इंटोमोफॉनल विविधता एवं उनके परस्पर संबंध
दक्षिण भारत में तथा वन से परे चंदन काष्ठ के उत्पादन के संबंध में संस्थान ने इंटोमोफॉनल विविधता का प्रलेखीकरण किया है । चंदन के वृक्षों पर प्रजनन करने वाले कीटों की पहचान तथा उससे निवारण के उपाय भी विकसित किए गए । इस विषय पर एक नियमावली भी प्रकाशित की चा चुकी है । सघन सर्वेक्षण से यह पता चला कि कर्नाटक वन क्षेत्र में तना छेदक एरिस्टोबाइऑक्टोफेक्सिकुलाटा तथा लाल तना छेदक ज्यूजेराकोफे अंतःकाष्ठ छेदक प्रचलित हैं । चंदन पौधारोपण में जेड. कॉफे तना छेदक मुख्यतः कर्नाटक के सभी जिलों में पाया जाता है तथा पर्प्यूरिकेनुसुंगुइनोलेंटस मुख्यतः बैंगलोर के ग्रामीण इलाकों में पाया जाता है । इन कीटों से छुटकारा पाने के लिए फाइप्रोमिल 0.3 ग्रा. 40 ग्राम प्रति पौधा एवं कार्टैप हाइड्रोक्लोराइड 25 ग्राम प्रति पौधा का छिड़काव तना छेदक से छुटकारा पाने में काफी प्रभावी है ।
3: वन एवं जलवायु परिवर्तन:
वनों में काष्ठ क्षय एवं मिथेन (सीएच4) उत्सर्जन का जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव का मूल्यांकन
संस्थान में वनों में काष्ठ क्षय एवं मिथेन (सीएच4) उत्सर्जन विषय पर अध्ययन किया गया । परिणाम से इस बात की पुष्टि हुई कि वनों में सूखे पेड़ अधिक मात्रा में मिथेन का उत्सर्जन करते हैं जो कि ग्लोबल वार्मिंग का एक सहयोगी घटक है । आँकड़ों से यह ज्ञात हुआ कि सूखे पेड़ जैसे रोजवुड -1949.89 पीपीएम, मट्ठी – 4630.36 पीपीएम, सागवान – 1561.92 पीपीएम, शीशम – 3059.45 पीपीएम, डिंडिगा – 1470 पीपीएम, मट्ठी (घारवाड़) – 2672.64 पीपीएम एवं आईडबल्यूएसटी की अनजान प्रजाति – 10717 पीपीएम मिथेन का उत्सर्जन करते हैं । मेथानोगेनियम एसपी. नामक बैक्टेरिया प्रजाति की भूमिका मिथेन के उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण पाई गई । अतः सूखे पड़ों की अनदेखी करना जलवायु के लिए खतरनाक हो सकता है ।
4: वन आनुवंशिक संसाधन एवं वृक्ष सुधार:
चंदन काष्ठ की गुणवत्ता सुधार हेतु अभ्यास का संकुल
चंदन के विकास के लिए आईडबल्यूएसटी ने पौधों की गुणवत्ता में सुधार हेतु बीज संग्रह, रखरखाव, भंडारण, अंकुरण आदि का मानकीकरण किया है । सर्वप्रथम चंदन फलों को एकत्रित कर उनसे पल्प को निकालकर छाया में सुखाया जाता है । फिर बोने से पहले बीजों को 16 घंटे तक गिबरेलिक एसिड के घोल में रखा जाता है उसके बाद बालू से बने 1x 10 मीटर की क्यारियों में इसे बोया जाता है । जब पौधे दो – तीन पत्तों वाले हो जाते हैं तब उन्हें 35 : 15 : 50 के अनुपात में बालू, मिट्टी एवं वनस्पति खाद वाले छोटे 270 सीसी वाले गमले में प्रतिरोपित किया जाता है । डाइथेन एम-45 (0.25%) एवं एकालक्स (0.02%) का छिड़काव महीने में एक बार किया जाता है । इस प्रका पौधे वृक्षारोपण हेतु 6 महीने में तैयार हो जाते हैं ।
डेंड्रोकलामुस्टॉक्सी के विकास हेतु मैक्रोप्रोपेगेशन तकनीक
आईडबल्यूएसटी में डेंड्रोकलामुस्टॉक्सी के विकास हेतु कल्म कटिंग के माध्यम से एक आसान तरीक विकसित किया गया है । इस विधि के द्वारा बाँस की पौधशाला बनाया जाता है जो अत्यंत ही आसान एव सफल तरीका है । फरवरी और मार्च के महीनें में कल्म कटिंग की जाती है तथा इस विधि से पर्याप्त मात्रा में पौधे तैयार किए जाते हैं । प्रारंभ में इन पौधों को दो-तीन सप्ताह के लिए कृषि छाया जाल के नीचे रखा जाता है । इस प्रकार ये पौधे 6 महीने में रोपने योग्य हो जाते हैं ।
वृक्ष सुधार एवं संरक्षण
चंदन काष्ठ क्लोन में अंतःकाष्ठ तेल की मात्रा में परिवर्तन ज्ञात करने के लिए एक अध्ययन किया गया जिससे यह पाया गया कि भिन्न-भिन्न क्लोन में अंतःकाष्ठ तेल की मात्रा अलग-अलग है तथा कुछ क्लोन में यह पाया गया कि 20 वर्ष के बाद भी उसमें अंतःकाष्ठ का विकास नहीं हो पाया है । प्रकाश संश्लेषण तथा जल उपयोग पर किए गए एक अध्ययन से यह पता चला कि यह विभिन्न क्लोन में परिवर्तित होता रहता है और यह चंदन काष्ठ एवं यूकैलिप्टस के विकास कार्यक्रम हेतु चयन में उपयोगी होता है । अंतःकाष्ठ, रस एवं तेल की मात्रा में परिवर्तन अध्ययन हेतु पंजाब, हिमाचल प्रदेश एवं असम से चंदन काष्ठ के नमूने एकत्रित किए गए । पंजाब, हिमाचल प्रदेश एवं असम के चंदन काष्ठ के आनुवंशिक विविधता के अध्ययन हेतु पृथक डीएनए एकत्रित किए गए ।
बेहतर काष्ठ हेतु वृक्ष सुधार
व्यावसायिक रूप से उपयोग में लाए जाने वाले काष्ठ प्रजातियों में भविष्य में उपयोग हेतु महत्त्वपूर्ण सुधार किया जा सकता है । इस स्थिति में गुणवत्ता मानक पर आनुवंशिक एवं पर्यावरण नियंत्रण के मूल्यांकन की आवश्यक्ता होती है । एक ही प्रजाति के काष्ठ की गुणवत्ता में भी अंतर होता है । संस्थान ने काष्ठ लट्ठों में ध्वनि वेग ज्ञात करने के लिए एक पद्धति का विकास किया है जो काष्ठ के विभिन्न गुणों के बारे में सूचनाएँ प्रदान करता है । काष्ठ में कड़ापन एवं घनत्त्व की माप करने के लिए भी एक भी एक पद्धति का विकास किया जा रहा है । यह तकनीक काष्ठ के गुणों के आधार पर उसकी उपयोगिता निर्धारण में अत्यंत ही सहायक है ।
महत्त्वपूर्ण चयनित वृक्षों एवं बाँस की प्रजातियों का मैक्रो एवं माइक्रो प्रोपेगेशन
उत्तम तेल एवं अंतःकाष्ठ के उत्पादन हेतु चंदन के पेड़ों में समुचित विकास हेतु कर्नाटक के क्षेत्रीय वनों में संवर्धित माइक्रोप्रोपेगेशन के आधार पर उन्नत परिणाम हेतु प्रयास किए गए । मीलिआ ड्यूबिया एवं एम्बेलियरिब्स नामक उच्च गुणों वाला औषधिय पौधों को माइक्रो प्रोपेगेशन के माध्यम से विकसित किया गया ।
कर्नाटक में सागवान के वनारोपण पर वृद्धि एवं उपज का अध्ययन
कर्नाटक में सागवान की खेती के लिए कुल एवं बिक्री लायक आयतन का समीकरण विकसित किया गया है । सागवान के आयतन की माप हेतु उपलब्ध अन्य समीकरणों की जाँच की गई जो सामान्यतः कम आँकलन प्रदर्शित करता है । नव विकसित समीकरण छोटे पेड़ों की अपेक्षा बड़े पेड़ों पर अधिक विश्वसनीय परिणाम प्रदर्शित करता है ।
बाँस का खेतों में प्रदर्शन का परिक्षण
आईडबल्यूएसटी द्वारा कर्नाटक के चिकमगलूर, कूर्ग एवं होसकोटे के उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में बाँस की विभिन्न प्रजातियों पर परीक्षण किया गया । इस प्रक्रिया में बाँस की छः प्रजातियों पर विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शन का मूल्यांकन किया गया । पारंपरिक फाइकस आधारित कृषि वानिकी एवं पारिस्थितिक अध्ययन से यह पता चला कि फाइकस के अंतर्गत ऊसर भूमि फसल की आवश्यकताओं का 70 एन, 20% पी, 67% के इनके कूड़े से प्राप्त हो जाता है । इसके अतिरिक्त समाज-अर्थ विश्लेषण से यह पता चला है कि माण्ड्या में इसके अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं । कर्नाटक में तीन स्थानों पर आम, आँवला एवं कॉफी के साथ चंदन की खेती कृषि वानिकी परीक्षण हेतु स्थापित किया गया । सात साल पूराने वृक्षों में अंतःकाष्ठ का निर्माण शुरू हो चुका है ।
पीएचडी पाठ्यक्रम एवं परियोजनाएँ
काष्ठ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान वन शोध संस्थान विश्वविद्यालय देहरादून के अंतर्गत छात्रों का पीएचडी हेतु नामांकन करता है । वर्ष 2000 से एफआरआई मानित विश्वविद्यालय के अंतर्गत अनुसंधान हेतु खण्ड 3.3 में आईडबल्यूएसटी द्वारा कुल 83 उम्मीदवारों का नामांकन किया गया । वर्ष 2011 से 2016 के बीच 32 उम्मीदवारों को पीएचडी की उपाधि प्रदान की गई ।
संस्थान विभिन्न विश्वविद्यालयों/संस्थानों/महाविद्यालयों के स्नातक एवं स्नातकोत्तर छात्रों को शोध-प्रबंध हेतु सहायता भी करता है । संस्थान के वैज्ञानिकों को विभिन्न विश्वविद्यालयों/संस्थानों द्वारा अतिथि व्याख्यान एवं बाह्य परीक्षक के रूप में आमंत्रित भी किया जाता है ।
निगरानी एवं मूल्यांकन:
संस्थान कर्नाटक में लौह अयस्क खदान के उद्धार एवं पुनर्वास कार्यक्रम के विकास में सक्रिय भूमिका निभाता रहा है । संस्थान कर्नाटक वन विभाग को विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों के परीक्षण हेतु निर्धारण एवं मूल्यांकन संबंधित सेवाएँ मुहैया कराता है । संस्थान भारत में वनों के पुनर्निर्धारण कार्यक्रम का एक हिस्सा था ।
3- वानिकी अनुसंधान एवं विस्तार
संस्थान का विस्तार विभाग निरूपण कार्यक्रमों, वन विज्ञान केन्द्रों, किसान मेलों, सम्मेलनों, संगोष्ठियों, कार्याशालाओं, प्रशिक्षणों एवं प्रकाशनों के माध्यम से हितधारकों तक पहुँचने का प्रयत्न करता है ।
अधिक जानकारी के लिए यहां जाएं: http://iwst.icfre.gov.in/